लेखनी कविता - जो दिलो-जिगर में उतर गई - फ़िराक़ गोरखपुरी
जो दिलो-जिगर में उतर गई / फ़िराक़ गोरखपुरी
जो दिलो-जिगर में उतर गई वो निगाहे-यार कहाँ है अब ?
कोई हद है ज़ख्मे-निहाँ की भी कि हयात वहमो गुमाँ है अब
मिली इश्क़ को वो हयाते नौ कि आदम का जिसमें सुकून है
ये हैं दर्द की नई मंज़िलें न ख़लिश न सोज़े-निहाँ है अब
कभी थीं वो उठती जवानियाँ कि गुबारे-राह नुजूम थे
न बुलंदियाँ वो नज़र में हैं न वो दिल की बर्के-तपाँ है अब
जिन्हें ज़िन्दगी का मज़ाक था, वही मौत को भी समझ सके
न उमीदो-बीम के मरहले में ख्याले-सूदो-ज़ियाँ है अब
न वो हुस्नो इश्क़ की सोहबत न वो मजरे न वो सानिहे
न वो बेकसों का सुकूते-ग़म न किसी को तेग़े-ज़बाँ है अब
ये फ़िराक़ है कि विसाल है कि ये महवियत का कमाल है
वो ख्याले-यार कहाँ है अब वो जमले-यार कहाँ है अब
मुझे मिट के भी तो सुकूँ नहीं कि ये हालतें भी बदल चलीं
जिसे मौत समझे थे इश्क़ में, वो मिसाले-उम्रे-रवाँ है अब ?
वो निगाह उठ के पलट गयी, वो शरारे उड़ के निहाँ हुए
जिसे दिल समझते थे आज तक वो 'फ़िराक़' उठता धुआँ है अब